piyush kaviraj

feelings and musings…


Leave a comment

वर्तमान समय और लोकनायक जे.पी. की प्रासंगिकता


वर्तमान समय में जेपी की प्रासंगिकता

45 वर्ष हुए जब सही मायने में एक सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान हुआ जिससे सम्पूर्ण राष्ट्र, विशेषरूप से बिहार, के राजनीति का अद्भुत मंथन हुआ। बलवान चरित्र और गाँधीवादी शस्त्रों में निपुण लोकनायक जय प्रकाश नारायण जी ने जब बिहार में सुगबुगा रहे छात्र राजनीति को अपना प्रखर नेतृत्व दिया तो यह सुगबुगाहट सम्पूर्ण राष्ट्र में क्रांति का मशाल ले कर फैली और दिल्ली में स्थापित सरकार, जिसने जनतंत्र को विस्थापित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, को जड़ से हिल दिया। जेपी के लोकनेतृत्व के लहर में देश फिर से 1942 के जन-आंदोलन जैसा महसूस करने लगा था और उनके कहने पर छात्रों ने कालेज और युवाओं ने अपने नौकरी छोड़ दिए थे।

इस लोक-मंथन ने खास तौर पर बिहार राज्य में कई समाजवादी और जनवादी नेताओं को जन्म दिया और संवारा। हालांकि बहुत नेता परदे के पीछे काम करते रहे और बाद में गुमनामी में रहे किन्तु पिछले 50 वर्षों के राजनैतिक मैदान में जो योद्धा दिखे और ऊपर उठे वो जेपी आंदोलन के ही उपज हैं, चाहे वो पिछले 30 वर्षों से सत्ता संभाले लालू और नीतीश हों,  या सुशील मोदी, राम विलास पासवान, रवि शंकर प्रसाद, या राम जतन सिंहा।

आज ये सभी बड़े नाम-धारी समय के रथ पर सवार होकर काफी दूर आ चुके हैं। सभी रिटायर होने के करीब हैं या होने लगे हैं। पासवान जी अभी कुछ दिन पहले ही दिवंगत हो गए। ऊपर से इन नेताओं ने दो महत्वपूर्ण गलतियाँ की। पहला की ये नेता जेपी के सिद्धांतों से समय के साथ दूर होते चले गए, और कइयों ने अपने परिवार को ही आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। बाकी समय तो ये धुरंधर नेता एक दूसरे के ही पर कुतरने में लगे रहते हैं। कभी स्वर्गीय पासवान जी की जिद ने सरकार बनने में बाधा डाल दिया, तो नीतीश जी सरकार बचाने के लिए भाजपा, राजद और काँग्रेस सब को आजमाते रहे हैं। लालू जी खुद जेल में हैं, लेकिन अपने परिवार को ही सत्ता का केंद्र बनाए रखने के लिए कभी पत्नी, कभी सालों और अब पुत्रों को आगे कर रहे हैं। सुशील मोदी जी नीतीश जी के छत्र छाया से बाहर ही नहीं आना चाहते हैं। भाजपा में और कोई नेता तो इतना बड़ा नहीं दिखता। शाहनवाज़ हुसैन और राजीव प्रताप रुडी राष्ट्रीय स्तर पर थोड़ा नाम रखते थे पर इनकी उम्र भी किसी से छिपी नहीं है। काँग्रेस में तो कोई दमदार नाम तक नहीं, आंतरिक कलह और घमासान से ही किसी को फुरसत नहीं वहाँ। जेपी ने तो देश के सर्वोच्च पदों को भी विनम्रता से ठुकरा दिया था और यहाँ हर छोटे पद के लिए  लोग क्या से क्या कर रहे हैं।

दूसरा और महत्वपूर्ण कि इन लोगों ने भविष्य के लिए प्रभावी नेता तैयार नहीं किए। इसलिए अब स्थिति यह है कि बिहार जैसे राज्य में कोई शक्तिशाली युवा चेहरा ही नहीं है। बिहार के कॉलेजों के छात्र नेताओं को ना तो कोई जानता है, ना ही कॉलेजों में ही उनका कोई वजूद नजर आता है। जो इक्के-दुक्के नाम सुनने को मिलते हैं वो इन नेताओं के परिवार से हैं। ले दे कर चिराग पासवान, तेजस्वी और तेज प्रताप के नाम मालूम हैं लोगों को। कन्हैया कुमार का नाम उछलता है कभी कभार पर वो सोशल मीडिया वाले नेता हैं। यही हाल एक दो नए नामों का भी है जो चुनावी मौसम में ट्विटर पर दिखाई दे रहे हैं।  प्रशांत किशोर का नाम काफी ऊपर आया किन्तु वो बाकी राज्यों के सरकार बनवाने में व्यस्त दिख रहे हैं। उन्होंने ‘बात बिहार की’ और बिहारी युवाओं को प्रशिक्षित करने का ऐलान किया है किन्तु इसका असर शायद अगले चुनावों के समय ही दिखे। बाकी कोई भी नेता भविष्य के लिए किसी को ‘मेन्टर’ करते तो नहीं दिख रहे। राजनीति में ऐसा होना अच्छा नहीं।  

ये कैसा नेतृत्व है जो आने वाले 10, 20 और 30 वर्षों के परिवेश के लिए लोगों और नेताओं को तैयार ही नहीं करना चाहता। शायद यही वजह है की ‘लोकनायक’ जैसा फिर कोई  दोबारा नहीं हुआ! जेपी ने उस उम्र में, अस्वस्थता के बीच, अपने शर्तों पर छात्रों का नेतृत्व किया, उन्हे मार्गदर्शन दिया और आने वाले 45-50 वर्षों के लिए राजनैतिक योद्धा तैयार किया। अगर जेपी नहीं होते तो छात्र आंदोलन असमय ही खत्म कर दिया जाता। ये जेपी का ही प्रताप था कि बिहार से शुरू हुए उस आंदोलन में पूरे देश के आम जन जुड़े और उनकी सम्पूर्ण क्रांति ने दिल्ली में इंदिरा सरकार का तख्त हिला दिया। और ये सब बिना किसी पद या गरिमा के लालच में किया उन्होंने। बहुत लोगों को मालूम ना हो लेकिन उन्हे प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति जैसे पदों की भी कोई लालसा नहीं थी।

जेपी जैसे नेता हर युग में सदा प्रासंगिक रहेंगे। आज फिर से समाज और राजनीति को मंथन की जरूरत है ताकि आने वाले समय में जनतंत्र में विकल्पों का शून्य ना रहे। शायद फिर से एक और जेपी की जरूरत और तलाश है।

डा. पीयूष कुमार

Twitter: @piyushKAVIRAJ

——————

Further reading:

https://bangaloremirror.indiatimes.com/opinion/views/the-idea-of-total-revolution/articleshow/49422574.cms

https://www.thequint.com/explainers/caa-protests-jp-movement-how-students-changed-protests-in-the-70s-jayaprakash-narayanan

https://indianexpress.com/article/explained/jayaprakash-narayan-emergency-congress-jp-movement-emergency-in-india-indira-gandhi-sampoorna-kranti-4884241/

https://www.dailypioneer.com/2015/india/jps-sampoorn-kranti-revisited.html


Leave a comment

किताब पढ़ने का सुख


#किताब के पीले पन्ने पलटने का सुख;

बिस्तर पर लेटकर,

पढ़ते हुए नाक में आती खुशबू;

और पढ़ते पढ़ते सो जाना,

चश्मा लगाकर ही।

पिताजी किसी समय रात को

दोनों टेबल पर रख देते।

कहाँ वो सुख पीडीएफ़ में,

कहाँ वो मज़ा #किन्डल में!

worldBook Day


Leave a comment

कोयले का ढेर


A wonderful poem by Miss Upasana Singh.

Written in remembrance of those 372 people who lost their lives in the Chasnalla IIsco coal mine disaster in 1975 on this day … RIP

वो कालिख से भरी दिन वो काला सा कोयले का ढेर ,
कर गया था कितने सपनो को राख ,कितनो की किस्मत में उलट फेर ,
वो कोयला का ढेर अब घरों के चूल्हे जला नहीं बल्कि बुझा कर आया था,
उस वक्त ज़िन्दगी में बस कोयले सा ही कला साया था,
किसे पता था पानी जो जीवन देती है वो जीवन ही बहा ले जाएगी ,
उठते गिरते साँसों को एक साथ डुबो कर जाएगी,
खदानों में भरे पानी के साथ शायद लोगों का दिल भी भर आया था,
वो कोयले सा पत्थर पानी से ही सबकुछ जला आया था ,
आज बहुत सालों के बाद भी कोयले की राख जलती ही रहती है ,
उस काली स्याह रात की कालिख अब भी ज़ेहन से नहीं निकलती है .

© 2014 Upasana Singh

https://www.facebook.com/upasana.singh.9461/posts/10203281258934296?pnref=story


1 Comment

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है- मुनव्वर राना


original source credits: http://www.jankipul.com/2014/12/blog-post_20.html

आज हिंदी के दुःख को उर्दू ने कम कर दिया- कल साहित्य अकादेमी पुरस्कार की घोषणा के बाद किसी मित्र ने कहा. मेरे जैसे हजारों-हजार हिंदी वाले हैं जो मुनव्वर राना को अपने अधिक करीब पाते हैं. हिंदी उर्दू का यही रिश्ता है. हिंदी के अकादेमी पुरस्कार पर फिर चर्चा करेंगे. फिलहाल, मुनव्वर राना की शायरी पर पढ़िए प्रसिद्ध पत्रकार, कवि, लेखक प्रियदर्शन का यह मौजू लेख- प्रभात रंजन

============================

लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है / मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं और हिंदी मुस्कुराती है,ये मुनव्वर राना हैं- समकालीन उर्दू गज़ल की वह शख़्सियत जिनका जादू हिंदी पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है।  हिंदी में उनकी किताबें छापने वाले वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी बताते हैं कि मुनव्वर राना के संग्रह ‘मां’ की एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं। यही नहीं, हाल में आई उनकी सात किताबों के संस्करण 15 दिन में ख़त्म हो गए। जिस दौर में हिंदी कविता की किताबें 500 और 700 से ज्यादा नहीं बिकतीं, उस दौर में आख़िर मुनव्वर राना की ग़ज़लों में ऐसा क्या है कि वह हिंदी के पाठकों को इस क़दर दीवाना बना रही है? इस सवाल का जवाब उनकी शायरी से गुज़रते हुए बड़ी आसानी से मिल जाता है। उसमें ज़ुबान की सादगी और कशिश इतनी गहरी है कि लगता ही नहीं कि मुनव्वर राना ग़ज़ल कह रहे हैं- वे बस बात कहते-कहते हमारी-आपकी रगों के भीतर का कोई खोया हुआ सोता छू लेते हैं। उनकी शायरी में देसी मुहावरों का जो ठाठ है, बिल्कुल अलग ढंग से खुलता है। मसलन, बहुत पानी बरसता है तो मिट्टी बैठ जाती है /न रोया कर बहुत रोने से छाती बैठ जाती है।… वो दुश्मन ही सही, आवाज़ दे उसको मोहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख, हड़्डी बैठ जाती है।

बरसों पहले हिंदी के मशहूर कवि और ग़ज़लकार दुष्यंत कुमार ने अपनी इतनी ही मशहूर किताब‘साये की धूप’ की भूमिका में लिखा था कि हिंदी और उर्दू जब अपने-अपने सिंहासनों से उतर कर आम आदमी की ज़ुबान में बात करती हैं तो वे हिंदुस्तानी बन जाती हैं। दरअसल राना की ताकत यही है- वे अपनी भाषा के जल से जैसे हिंदुस्तान के आम जन के पांव पखारते हैं। फिर यह सादगी भाषा की ही नहीं, कथ्य की भी है। उनको पढ़ते हुए छूटते नाते-रिश्ते, टूटती बिरादरियां और घर-परिवार याद आते हैं। मां की उपस्थिति उनकी शायरी में बहुत बड़ी है- अभिधा में भी और व्यंजना में भी- जन्म देने वाली मां भी और प्रतीकात्मक मां भी- लबों पे उसके कभी बददुआ नहीं होती / बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती।

ऐसी मिसालें अनगिनत हैं। लगता है मुनव्वर राना को उद्धृत करते चले जाएं- घर, परिवार, सियासत, दुख-दर्द का बयान इतना सादा, इतना मार्मिक, इतना आत्मीय कि हर ग़ज़ल अपनी ही कहानी लगती है, हर बयान अपना ही बयान लगता है- बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है / बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है /…. यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता / मैं जब तक घर न लौटूं, मेरी मां सजदे में रहती है।../ अमीरी रेशमो किमखाब में नंगी नज़र आई / गरीबी शान से इक टाट के परदे में रहती है।

दरअसल इस सादगी के बीच मुनव्वर एक समाजवादी मुहावरा भी ले आते हैं- राजनीतिक अर्थों में नहीं, मानवीय अर्थों में ही। उनकी ग़ज़लों में गरीबी का अभिमान दिखता है, फ़कीरी की इज़्ज़त दिखती है, ईमान और सादगी के आगे सिजदा दिखता है। हालांकि जब इस मुहावरे को वे सियासत तक ले जाते हैं तो सादाबयानी सपाटबयानी में भी बदल जाती है- मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है / सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है। 

दरअसल यहां समझ में आता है कि मुनव्वर राना ठेठ सियासी मसलों के शायर नहीं हैं, जब वे इन मसलों को उठाते हैं तो जज़्बाती तकरीरों में उलझे दिखाई पड़ते हैं, मां के धागे से मुल्क के मुहावरे तक पहुंचते हैं और देशभक्ति के खेल में भी कहीं-कहीं फंसते हैं। लेकिन उनका इक़बाल कहीं ज़्यादा बड़ा है। वे सियासी सरहदों के आरपार जाकर इंसानी बेदखली की वह कविता रचते हैं जिसकी गूंज बहुत बड़ी है। भारत छोड़कर पाकिस्तान गए लोगों पर केंद्रित उनकी किताब ‘मुहाजिरनामा’ इस लिहाज से एक अनूठी किताब है। कहने को यह किताब उन बेदखल लोगों पर है जो अपनी जड़ों से कट कर पाकिस्तान गए और वहां से हिंदुस्तान को याद करते हैं, लेकिन असल में इसकी जद में वह पूरी तहजीब चली आती है जो इन दिनों अपने भूगोल और इतिहास दोनों से उखड़ी हुई है। यह पूरी किताब एक ही लय में- एक ही बहर पर- लिखा गया महाकाव्य है जिसमें बिछड़ने की, जड़ों से उखड़ने की कसक अपने बहुत गहरे अर्थों में अभिव्यक्त हुई है। किताब जहां से शुरू होती है, वहां मुनव्वर कहते हैं, ‘मुहाजिर हैं, मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं / तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं। आगे कई शेर ऐसे हैं जो दिल को छू लेते हैं, कहानी के ये हिस्सा आज तक सबसे छुपाया है / कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं…./ जवानी से बुढ़ापे तक जिसे संभाला था मां ने / वो फुंकनी छोड़ आए हैं, वो चिमटा छोड़ आए हैं / किसी की आरजू के पांव में ज़ंजीर डाली थी / किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं। यह पूरी किताब अलग से पढ़ने और लिखे जाने लायक है।

बहरहाल, सादगी कविता का इकलौता मोल नहीं होती। उर्दू के ही सबसे बड़े शायर मिर्ज़ा गालिब कहीं से सादाबयानी के शायर नहीं हैं, उनमें अपनी तरह का विडंबना बोध है- ईमां मुझे रोके हैं, खैंचे है मुझे कुफ़्र’ वाली कशमकश, जो शायरी को अलग ऊंचाई देती है। इक़बाल भी बहुत बड़े शायर हैं- लेकिन उनकी भाषा और उनके विषय में अपनी तरह की जटिलता है। बेशक, मीर और फ़िराक देशज ठाठ के शायर हैं, लेकिन उनकी शायरी मायनी के स्तर पर बहुत तहदार है। लेकिन उर्दू में सादगी की एक बड़ी परंपरा रही है जो कई समकालीन शायरों तक दिखती है। फ़ैज़ की ज़्यादातर ग़ज़लें बड़ी सादा जुबान में कही गई हैं। निदा फ़ाज़ली, अहमद फ़राज़, बशीर बद्र अपने ढंग से सादाज़ुबान शायर हैं और बेहद लोकप्रिय भी। लेकिन मुनव्वर राना इस सादगी को कुछ और साधते हैं। उनकी परंपरा कुछ हद तक नासिर काज़मी की ‘पहली बारिश’ से जुड़ती दिखती है। लेकिन नासिर की फिक्रें और भी हैं, उनके फन दूसरी तरह के भी हैं। एक स्तर पर मुनव्वर अदम गोंडवी के भी क़रीब दिखते हैं, ख़ासकर जब वो राजनीतिक शायरी कर रहे होते हैं। लेकिन अदम में जो तीखापन है, उसको कहीं-कहीं छूते हुए भी मुनव्वर उससे अलग, उससे बाहर हो जाते हैं।

उर्दू की इस परंपरा को पढ़ते हुए मुझे हिंदी के वे कई कवि याद आते हैं जो अपने शिल्प में कहीं ज़्यादा चौकस, अपने कथ्य में कहीं ज़्यादा गहन और अपनी दृष्टि में कहीं ज़्यादा वैश्विक हैं। लेकिन पता नहीं क्यों, वे अपने समाज के कवि नहीं हो पाए हैं। अक्सर यह सवाल मेरे भीतर सिर उठाता है कि क्या यह कहीं शिल्प की सीमा है जो हिंदी कवि को उसके पाठक से दूर करती है?आखिर इसी भाषा में रचते हुए नागार्जुन जनकवि होते हैं, भवानी प्रसाद मिश्र दूर-दूर तक सुने जाते हैं, दुष्यंत भरपूर उद्धृत किए जाते हैं और हरिवंश राय बच्चन और रामधारी सिंह दिनकर तक खूब पढ़े जाते हैं। अचानक ये सारे उदाहरण छंदोबद्ध कविता के पक्ष में जाते दिखते हैं, लेकिन मेरी मुराद यह नहीं है। मेरा कहना बस इतना है कि हिंदी कविता को अपना एक मुहावरा बनाना होगा जो उसके पाठकों तक उसे ले जाए। ये एक बड़ी चुनौती है कि हिंदी कविता की अपनी उत्कृष्टता और बहुपरतीयता को बचाए रखते हुए यह काम कैसे किया जाए।

Source: http://www.jankipul.com/2014/12/blog-post_20.html

jankipul


2 Comments

कुमार विश्वास क्यों मेरे दिल के बहुत करीब है? – श्री प्रभात रंजन


“कुमार के ऊपर मेरा विश्वास इसलिए है क्योंकि वह हमारी तरह कस्बाई है, हिंदी वाला है और वह पहला हिंदी वाला है जिसको चाहने वाले इसलिए नहीं शर्माते कि वह हिंदी वाला है. कुमार विश्वास ने हिंदी को गर्व की भाषा बनाया है, वह एक बहुत बड़े तबके के लिए अब शर्म की भाषा नहीं रह गई है. यह काम वे गंभीर लेखक नहीं कर पाए जो स्त्री विमर्श, अस्मिता विमर्श के फ़ॉर्मूले गढ़ते रहे”

आज डॉ कुमार विश्वास किसी परिचय के मोहताज़ नहीं. युवा दिलों की धड़कन और हर उम्र के पसंदीदा कुमार ने हिंदी भाषा साहित्य में जो फिर से विश्वास जगाया है वह प्रशंशनीय है. आज एक बार फिर किसी कवि की पंक्तियाँ अगर फ़िल्मी गानों की तरह लोगों की जुबां पर है तो वो कुमार विश्वास का है. प्रस्तुत है जानकीपुल पर प्रकाशित  जी का यह आलेख. 

” मैं हिंदी का कैसा लेखक हूँ यह आप जानें. मुझे अपने लेखन को लेकर कोई मुगालता नहीं है. लेकिन ‘पाखी’ पत्रिका में कुमार विश्वास के साक्षात्कार के प्रकाशन के नजरिये और उनके साक्षात्कार के प्रकाशन के बाद जिस तरह हम खुद को गंभीर लेखक साबित करने के लिए कुमार के ऊपर हमले कर रहे हैं, उसने मुझे आहत  किया है. मुझे हर जनप्रिय लेखक के ऊपर हमला आहत करता है. कि भी ऐसा लेखक जो आम जन में अपने लेखन के बल पर अपनी मुकाम बनाता है वह त्याज्य कैसे हो सकता है? यह सवाल ऐसा है जिससे मैं करीब 30 साल से जूझ रहा हूँ.

पहले मैं यह बता दूँ कि मैं कुमार विश्वास का क्यों कायल हूँ? एक, कुमार हमारी तरह की हिंदी आइदेंटिटी वाला है यानी हिंदी माध्यम का पढ़ा-लिखा, हिंदी में मास्टरी करने वाला. इसके बावजूद वह ‘यूथ आइकन’ बना. जी, फ़िल्मी कलाकारों को छोड़ दें तो मेरे अनुभव में ऐसा आइकन कोई और नहीं है. मैं खुद हिंदी का मास्टर हूँ. दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग-अलग कॉलेजों के विद्यार्थियों के संपर्क में रहता हूँ, तकनीकी शिक्षण संस्थानों में जाता आता रहता हूँ, जिस कॉलेज में पढाता हूँ उसके बगल में दिल्ली का एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज है जहाँ के लड़के लडकियों से गाहे बगाहे मुलाकात होती रहती है. उनके लिए हिंदी का मतलब कुमार विश्वास है, साहित्य का मतलब कुमार विश्वास है. यह मैं अपने अनुभव से कहना चाहता हूँ.

बहुत पहले मनोहर श्याम जोशी ने अपने उपन्यास ‘कसप’ में यह सवाल उठाया था कि हिंदी पट्टी के प्रेमी प्रेमिका प्रेम में ‘पीले फूल कनेर के’ जैसे साहित्यिक कविताओं के आदान-प्रदान करने की जगह फ़िल्मी गीतों के माध्यम से अपनी भावनाओं को क्यों अभिव्यक्त करते हैं? मैंने ‘कुमार के गीत ‘कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है’ गुनगुनाते बढ़िया बढ़िया हाई फाई लड़कों को भी सुना है. मुझे यह कहने में कोई उज्र नहीं है कि आज हिंदी में ऐसे लेखकों की जो नई खेप आई है जो इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट की बैकग्राउंड की हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं कुमार की लोकप्रियता है, ऐसे शिक्षण संस्थानों में उसकी स्वीकार्यता है. हिंदी का दायरा बढाने में कुमार विश्वास की भूमिका ऐतिहासिक है. यह सच्चाई है कि अखिलेश की कहानियों या भगवानदास मोरवाल टाइप लद्धड़ लेखन करने वाले लेखकों के उपन्यासों ने किसी को प्रेरित किया हो या नहीं लेकिन कुमार की कविताओं ने एक पीढ़ी को प्रेरित किया है, प्रभावित किया है. गर्व होता है कि वह अपने जैसा टाइप है, हिंदी वाला है. क्यों न करूँ. हम हिंदी वाले अंग्रेजी के चेतन भगत तक को स्वीकार कर लेते हैं लेकिन अपने हिंदी वाले कुमार विश्वास को स्वीकार करने में हमारी हेठी होती है. यह मध्यवर्गीय हीनताबोध है और कुछ नहीं.

उसकी कविताओं ने एक और बड़ा काम किया है. मंचों पर उसके आने से पहले सुरेन्द्र शर्मा, जेमिनी हरियाणवी, अशोक चक्रधर टाइप चुटकुलेबाजों का दबदबा था जिन्होंने एक दौर तक हिंदी को ही चुटकुले में बदल दिया था. कुमार ने हास्य कविता के उस दौर के अंत पर निर्णायक मुहर लगाई. उसने मंचों पर छंदों की वापसी की. गोपाल सिंह नेपाली, रमानाथ अवस्थी की खोई हुई कड़ी को मंचों पर फिर से जीवित बनाया. यहाँ यह कहने में मुझे कोई डर नहीं है कि हिंदी के बहुत सारे कवियों से वह शुद्ध भाषा लिखता है. मैं पूछना चाहता हूँ कि ‘महादेव’ जैसा सीरियल लिखने वाला, गंगा यात्रा करने वाला निलय उपाध्याय नामक कवि किस तर्क से प्रगतिशील बना रहता है और कुमार जन विरोधी हो जाता है.

एक बात और जिसका जिक्र जरूरी है. हम जनवादी लेखक जन सरोकारों की बात बहुत करते हैं लेकिन जन आंदोलनों में हमारी भागीदारी नगण्य रहती है. कुमार ने अन्ना के आन्दोलन से लेकर आम आदमी पार्टी में अपने आपको दांव पर रखकर, अपने कैरियर को दांव पर रखकर जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसके लिए मैं सदा उसका आदर करूँगा. उसने साबित किया कि वह सच्चा जनकवि है.

अब उसकी आलोचना में हम जितना भी यह कह लें कि वह स्त्री विरोधी है, जाति सूचक है तो भाई लोगों इस तर्क से कबीर से लेकर ‘मैंने जिसकी पूंछ उठाई मादा पाया’ जैसी कवितायेँ लिखने वाले कवि धूमिल को हम क्यों बख्श देते हैं? और सबसे बड़े विद्रोही लेखक राजकमल चौधरी को? ‘नदी होती लड़की’ कहानी के लेखक प्रियंवद को? असल में दाखिल ख़ारिज करने का खेल हम अपनी सुविधा के मुताबिक़ खेलते हैं.

मैं फिर कहना चाहता हूँ कि कुमार के ऊपर मेरा विश्वास इसलिए है क्योंकि वह हमारी तरह कस्बाई है, हिंदी वाला है और वह पहला हिंदी वाला है जिसको चाहने वाले इसलिए नहीं शर्माते कि वह हिंदी वाला है. कुमार विश्वास ने हिंदी को गर्व की भाषा बनाया है, वह एक बहुत बड़े तबके के लिए अब शर्म की भाषा नहीं रह गई है. यह काम वे गंभीर लेखक नहीं कर पाए जो स्त्री विमर्श, अस्मिता विमर्श के फ़ॉर्मूले गढ़ते रहे.

अंत में एक बात, कुमार विश्वास में एक ही कमी मुझे लगती है वह यह है कि वह अपने ग्लैमर से खुद ही बहुत प्रभावित हो गए हैं. आत्ममुग्ध से हो गए हैं. बड़ा रचनाकार वह होता है जो अपने ग्लैमर को तोड़कर बाहर निकल जाता है. मुझे बच्चन जी का किस्सा याद आता है. वे अपने जमाने के सबसे लोकप्रिय कवि थे. लेकिन उनको बाद में यह समझ में आया कि असली पूछ लोकप्रिय लोगों की नहीं गंभीर छवि वालों की होती है तो वे इंग्लैंड गए, वहां यीट्स पर पीएचडी की. वाद में जब लौटकर आये और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनको कोई बच्चन जी कहकर पुकारता था तो वे कहते थे- ‘डोंट कॉल मी बच्चन! आई एम एच. बी. राय!’

वैसे अच्छा ही है कुमार विश्वास में यह बनावटीपन नहीं आया है. और इसलिए उसकी कवितायेँ हो सकता है मुझे पसंद नहीं हों लेकिन हिंदी का यह गर्वीला ब्रांड मेरे दिल के करीब है.

अब लेख ख़त्म करता हूँ और कुमार की सुरीली आवाज में ‘कोई दीवाना कहता है…’ सुनने के लिए यूट्यूब का रुख करता हूँ!  पढने से अधिक मजा उसे सुनने में आता है”.

प्रभात रंजन.

http://www.jankipul.com/2014/11/blog-post_18.html?m=1

jankipul


Leave a comment

Aao parosen kuch lamhe is khwabon ki tshtari me


आओ परोसें कुछ लम्हे, इस ख्वाबों की तश्तरी में!!

Spinning a Yarn Of Life

आज बड़े दिनों बाद ज़िन्दगी तुम मिली हो मुझसे
आओ करें कुछ गुफ्तगू
दोपहर की नरम धुप में बैठकर
बुने कुछ गलीचे रंगों से सराबोर
आओ परोसें कुछ लम्हे इस ख्वाबों की तश्तरी में
आओ आईने से झांकते अपने ही अक्स में
ढूंढें खुदको या फिर युहीं ख्वाहिशों की
सिलवटों में एक दूसरे को करें महसूस
या फिर याद करें उन भीगी रातों में
जुगनुओं का झिलमिलाना
आओ खोलें खिड़कियां मंन की
हों रूबरू खुदसे
पिरोएँ ख्वाहिशें गजरों में
भरें पींग, छूएं अम्बर को
आओ पूरे करें कुछ अधूरे गीत
छेड़ें कुछ नए तराने
आओ बिताएं कुछ पल साथ
देखें सूरज को पिघलते हुए
इस सुरमयी शाम के साये तले
आओ चुने स्याही में लिपटे सितारे
बनायें इस रात को एक नज़्म
आओ परोसें कुछ लम्हे इस ख्वाबों की तश्तरी में

View original post


Leave a comment

Follow Up: Munshi Premchand


Munshi Premchand… the wizard and gem among novelists!!

urduwallahs

Every child in India has read at least one short story by Premchand, either in school or in university. At our mehfil at Prithvi we decided to honour the legacy of Premchand through his rich literature.

His oeuvre consists of over 250 short stories, dozens of novels, essays and translations of various foreign literary works into Hindi/Urdu. To explore Premchand’s life and works we invited many people associated with his work. The list of people included Nadira Babar (Apa) and her team Ekjute, Mujeeb Saab who has dedicated his life to Premchand’s stories and has done several plays based on his work, Iqbal Niyazi Saab and Javed Siddiqui Saab.

The evening started with an introduction of Premchand given by Javed Saab. He spoke about the humility of a man whose work spans far and wide. He mentioned that Premchand’s work has a strong flavor of a section of society, which…

View original post 265 more words

%d bloggers like this: