“कुमार के ऊपर मेरा विश्वास इसलिए है क्योंकि वह हमारी तरह कस्बाई है, हिंदी वाला है और वह पहला हिंदी वाला है जिसको चाहने वाले इसलिए नहीं शर्माते कि वह हिंदी वाला है. कुमार विश्वास ने हिंदी को गर्व की भाषा बनाया है, वह एक बहुत बड़े तबके के लिए अब शर्म की भाषा नहीं रह गई है. यह काम वे गंभीर लेखक नहीं कर पाए जो स्त्री विमर्श, अस्मिता विमर्श के फ़ॉर्मूले गढ़ते रहे”
आज डॉ कुमार विश्वास किसी परिचय के मोहताज़ नहीं. युवा दिलों की धड़कन और हर उम्र के पसंदीदा कुमार ने हिंदी भाषा साहित्य में जो फिर से विश्वास जगाया है वह प्रशंशनीय है. आज एक बार फिर किसी कवि की पंक्तियाँ अगर फ़िल्मी गानों की तरह लोगों की जुबां पर है तो वो कुमार विश्वास का है. प्रस्तुत है जानकीपुल पर प्रकाशित Prabhat Ranjan जी का यह आलेख.
” मैं हिंदी का कैसा लेखक हूँ यह आप जानें. मुझे अपने लेखन को लेकर कोई मुगालता नहीं है. लेकिन ‘पाखी’ पत्रिका में कुमार विश्वास के साक्षात्कार के प्रकाशन के नजरिये और उनके साक्षात्कार के प्रकाशन के बाद जिस तरह हम खुद को गंभीर लेखक साबित करने के लिए कुमार के ऊपर हमले कर रहे हैं, उसने मुझे आहत किया है. मुझे हर जनप्रिय लेखक के ऊपर हमला आहत करता है. कि भी ऐसा लेखक जो आम जन में अपने लेखन के बल पर अपनी मुकाम बनाता है वह त्याज्य कैसे हो सकता है? यह सवाल ऐसा है जिससे मैं करीब 30 साल से जूझ रहा हूँ.
पहले मैं यह बता दूँ कि मैं कुमार विश्वास का क्यों कायल हूँ? एक, कुमार हमारी तरह की हिंदी आइदेंटिटी वाला है यानी हिंदी माध्यम का पढ़ा-लिखा, हिंदी में मास्टरी करने वाला. इसके बावजूद वह ‘यूथ आइकन’ बना. जी, फ़िल्मी कलाकारों को छोड़ दें तो मेरे अनुभव में ऐसा आइकन कोई और नहीं है. मैं खुद हिंदी का मास्टर हूँ. दिल्ली विश्वविद्यालय के अलग-अलग कॉलेजों के विद्यार्थियों के संपर्क में रहता हूँ, तकनीकी शिक्षण संस्थानों में जाता आता रहता हूँ, जिस कॉलेज में पढाता हूँ उसके बगल में दिल्ली का एक प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज है जहाँ के लड़के लडकियों से गाहे बगाहे मुलाकात होती रहती है. उनके लिए हिंदी का मतलब कुमार विश्वास है, साहित्य का मतलब कुमार विश्वास है. यह मैं अपने अनुभव से कहना चाहता हूँ.
बहुत पहले मनोहर श्याम जोशी ने अपने उपन्यास ‘कसप’ में यह सवाल उठाया था कि हिंदी पट्टी के प्रेमी प्रेमिका प्रेम में ‘पीले फूल कनेर के’ जैसे साहित्यिक कविताओं के आदान-प्रदान करने की जगह फ़िल्मी गीतों के माध्यम से अपनी भावनाओं को क्यों अभिव्यक्त करते हैं? मैंने ‘कुमार के गीत ‘कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है’ गुनगुनाते बढ़िया बढ़िया हाई फाई लड़कों को भी सुना है. मुझे यह कहने में कोई उज्र नहीं है कि आज हिंदी में ऐसे लेखकों की जो नई खेप आई है जो इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट की बैकग्राउंड की हैं तो उसके पीछे कहीं न कहीं कुमार की लोकप्रियता है, ऐसे शिक्षण संस्थानों में उसकी स्वीकार्यता है. हिंदी का दायरा बढाने में कुमार विश्वास की भूमिका ऐतिहासिक है. यह सच्चाई है कि अखिलेश की कहानियों या भगवानदास मोरवाल टाइप लद्धड़ लेखन करने वाले लेखकों के उपन्यासों ने किसी को प्रेरित किया हो या नहीं लेकिन कुमार की कविताओं ने एक पीढ़ी को प्रेरित किया है, प्रभावित किया है. गर्व होता है कि वह अपने जैसा टाइप है, हिंदी वाला है. क्यों न करूँ. हम हिंदी वाले अंग्रेजी के चेतन भगत तक को स्वीकार कर लेते हैं लेकिन अपने हिंदी वाले कुमार विश्वास को स्वीकार करने में हमारी हेठी होती है. यह मध्यवर्गीय हीनताबोध है और कुछ नहीं.
उसकी कविताओं ने एक और बड़ा काम किया है. मंचों पर उसके आने से पहले सुरेन्द्र शर्मा, जेमिनी हरियाणवी, अशोक चक्रधर टाइप चुटकुलेबाजों का दबदबा था जिन्होंने एक दौर तक हिंदी को ही चुटकुले में बदल दिया था. कुमार ने हास्य कविता के उस दौर के अंत पर निर्णायक मुहर लगाई. उसने मंचों पर छंदों की वापसी की. गोपाल सिंह नेपाली, रमानाथ अवस्थी की खोई हुई कड़ी को मंचों पर फिर से जीवित बनाया. यहाँ यह कहने में मुझे कोई डर नहीं है कि हिंदी के बहुत सारे कवियों से वह शुद्ध भाषा लिखता है. मैं पूछना चाहता हूँ कि ‘महादेव’ जैसा सीरियल लिखने वाला, गंगा यात्रा करने वाला निलय उपाध्याय नामक कवि किस तर्क से प्रगतिशील बना रहता है और कुमार जन विरोधी हो जाता है.
एक बात और जिसका जिक्र जरूरी है. हम जनवादी लेखक जन सरोकारों की बात बहुत करते हैं लेकिन जन आंदोलनों में हमारी भागीदारी नगण्य रहती है. कुमार ने अन्ना के आन्दोलन से लेकर आम आदमी पार्टी में अपने आपको दांव पर रखकर, अपने कैरियर को दांव पर रखकर जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसके लिए मैं सदा उसका आदर करूँगा. उसने साबित किया कि वह सच्चा जनकवि है.
अब उसकी आलोचना में हम जितना भी यह कह लें कि वह स्त्री विरोधी है, जाति सूचक है तो भाई लोगों इस तर्क से कबीर से लेकर ‘मैंने जिसकी पूंछ उठाई मादा पाया’ जैसी कवितायेँ लिखने वाले कवि धूमिल को हम क्यों बख्श देते हैं? और सबसे बड़े विद्रोही लेखक राजकमल चौधरी को? ‘नदी होती लड़की’ कहानी के लेखक प्रियंवद को? असल में दाखिल ख़ारिज करने का खेल हम अपनी सुविधा के मुताबिक़ खेलते हैं.
मैं फिर कहना चाहता हूँ कि कुमार के ऊपर मेरा विश्वास इसलिए है क्योंकि वह हमारी तरह कस्बाई है, हिंदी वाला है और वह पहला हिंदी वाला है जिसको चाहने वाले इसलिए नहीं शर्माते कि वह हिंदी वाला है. कुमार विश्वास ने हिंदी को गर्व की भाषा बनाया है, वह एक बहुत बड़े तबके के लिए अब शर्म की भाषा नहीं रह गई है. यह काम वे गंभीर लेखक नहीं कर पाए जो स्त्री विमर्श, अस्मिता विमर्श के फ़ॉर्मूले गढ़ते रहे.
अंत में एक बात, कुमार विश्वास में एक ही कमी मुझे लगती है वह यह है कि वह अपने ग्लैमर से खुद ही बहुत प्रभावित हो गए हैं. आत्ममुग्ध से हो गए हैं. बड़ा रचनाकार वह होता है जो अपने ग्लैमर को तोड़कर बाहर निकल जाता है. मुझे बच्चन जी का किस्सा याद आता है. वे अपने जमाने के सबसे लोकप्रिय कवि थे. लेकिन उनको बाद में यह समझ में आया कि असली पूछ लोकप्रिय लोगों की नहीं गंभीर छवि वालों की होती है तो वे इंग्लैंड गए, वहां यीट्स पर पीएचडी की. वाद में जब लौटकर आये और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनको कोई बच्चन जी कहकर पुकारता था तो वे कहते थे- ‘डोंट कॉल मी बच्चन! आई एम एच. बी. राय!’
वैसे अच्छा ही है कुमार विश्वास में यह बनावटीपन नहीं आया है. और इसलिए उसकी कवितायेँ हो सकता है मुझे पसंद नहीं हों लेकिन हिंदी का यह गर्वीला ब्रांड मेरे दिल के करीब है.
अब लेख ख़त्म करता हूँ और कुमार की सुरीली आवाज में ‘कोई दीवाना कहता है…’ सुनने के लिए यूट्यूब का रुख करता हूँ! पढने से अधिक मजा उसे सुनने में आता है”.
प्रभात रंजन.
http://www.jankipul.com/2014/11/blog-post_18.html?m=1

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