piyush kaviraj

feelings and musings…


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अमंगल सोच


सितम्बर का महीना देश के लिए मंगलयान की सफलता के रूप में एक नया और नायाब तोहफा लेकर आया. पूरे देश में हर्ष और उन्माद का वातावरण कई दिनों तक छाया रहा. आखिर पहले प्रयास में और सबसे कम लागत में हमने वो कर दिखाया जो तकनीकी में कहीं आगे, जापान और चीन भी न कर सके. क्या स्कूल, क्या दफ्तर, क्या चपरासी, क्या अफसर! सभी ने इसरो के वैज्ञानिकों के साथ मिलकर जश्न मनाया.

किन्तु एक खबर ने चौंका कर रख दिया है. सुनने में आया है कि बिहार के मुख्यमंत्री श्री जीतन राम मांझी मधुबनी जिले के एक मंदिर में गए थे. मांझीजी के अनुसार उन्हें बाद में बताया गया कि उनके लौटने के बाद मंदिर और मंदिर में स्थित प्रतिमा की सफाई की गयी ताकि वो फिर से शुद्ध हो सके. ये किस दिशा में जा रहे हैं हम लोग? ऐसा लग रहा है मंगल से वापस धरती पर पटक दिया किसी ने!

पाठकों की जानकारी के लिए बता दूँ कि श्री मांझी ‘मुसहर’ नामक जाति से हैं. यह जाति बिहार की सबसे पिछड़ी जातियों में से एक है. मांझीजी का मुख्यमंत्री बनना ही इस बात का प्रतीक था कि अब बिहार में भी लोग जाति व्यवस्था से ऊपर उठकर भाईचारे के साथ काम करेंगे. किन्तु पुरातन सामंतवादी सोच लोगों का पीछा ही नहीं छोड़ती. दलित तो पैरों के नीचे ही ठीक है. ऊपर उठ गया तो सवर्णों की साख कम हो जाएगी. उनकी पूछ घट जाएगी. ऐसी बातें कब तक इंसानियत को शर्मसार करती रहेंगी. ऐसी घटनाएं बिहार ही नहीं, अन्य राज्यों में भी होती रहती हैं. किसी भी सभ्य समाज के लिए ऐसी घटनाएँ निंदनीय है.

सोचने योग्य बात यह है कि राज्य के मुख्यमंत्री के साथ ऐसा व्यवहार हुआ है तो फिर गाँवों में रहने वाले भोले भाले और कमजोर लोगो के साथ किस तरह का बर्ताव हो रहा होगा? दिल दहल उठता है ऐसी परिस्थिति से! क्या हम आने वाली पीढ़ियों के लिए ऐसा समाज बनाना चाहते हैं? क्या हम नहीं चाहते कि भविष्य मेहनत और मेधा के आधार पर तैयार हो! क्या हम नहीं चाहते कि भविष्य खोखले स्तंभों की जगह मजबूत विश्वास और सौहार्द्रता की नींव पर खड़ा हो? अमंगलकारी सोच और बातें किस कदर हमारे मानसिकता में अभी तक घर किये हुए हैं इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है! वहाँ हमारे वैज्ञानिकों ने चाँद को छू लिया, मंगल पर कदम रखने की पूरी तैयारी कर ली है और यहाँ धरती पर दलित, हरिजन, छुआ-छूत, जाति-पाति जैसे अमंगल सोच से भी पीछा नहीं छूट रहा.

पवन श्रीवास्तव नाम के एक युवा निर्देशक दलितों के ऊपर एक चलचित्र बनाने जा रहे हैं. शायद वो समाज के इस अभिशाप से लोगो को अच्छे से रू-ब-रू करा सकें. कुछ वर्षों पहले पटना स्थित महावीर मंदिर में एक दलित को पूजा के लिए नियुक्त किया गया था. कितनी ख़ुशी हुई थी सुनकर कि जाति की जगह महावीर मंदिर ट्रस्ट ने योग्यता पर भरोसा किया और पूरे देश के लिए एक उत्तम उदहारण पेश किया. ऐसा सोचने वाले इतने कम क्यों हैं! फिर भी, उम्मीद पर दुनिया कायम है. आशा है कि मंदिर धोने वाली घटना लाखो में एक हो और एक बुरे सपने की तरह फिर से परेशान न करे.

  • पीयूष कविराज

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