तो आखिरकार बारिश आई खारघर में! शाम से रुक रुक कर होती बारिश रात भर बरसती रही. आधी नींद में याद आया की बाहर कपडे हैं सूखने के लिए. उन्हें किसी तरह अन्दर किया. अन्दर करते करते ख़याल आया की मेरे तो बस कपडे बाहर रह गए थे.
मुल्क में और मुंबई में ही लाखों ऐसे हैं, जो परिवार समेत बाहर रह जाते हैं. भींगते रह जाते हैं. आस लगाए रह जाते हैं. कभी फ्लाईओवर की छाँव में खड़े होते हैं, कभी बड़े दुकाने के दीवारों के आसरे में छिपते हैं. जो बारिश हमे गर्मी से निजात दिलाती है, जिस बारिश में मेरे कई साथी मोर की तरह आनद उठाते हैं, वही बारिश कुछ लोगो के लिए नारकीय स्थिति उत्पन्न करती है.
बॉलीवुड के हर गाने याद आते है. किन्तु उनके लिए तो ये ही पंक्ति- “रहने को घर नहीं, सोने को बिस्तर नहीं!!” उपयुक्त प्रतीत होते हैं. ये कैसी विडंबना है साथियों. हमने तो सोचना भी बंद कर दिया है. समय किसके पास है!! क्रेडिट कार्ड के खर्चे, कार का पेट्रोल, ए.सी. का बिल, ब्रोक्कोली की कीमत, रेस्टोरेंट में भोजन, बॉस के डेडलाइन… बहुत काम है. ये किस पागल सोच ने मुझे बहका दिया? मेरे घर में तो बूँद नहीं टपक रहे!! फिर मै सारी दुनिया का टेंशन क्यों ले रहा हूँ?
शायद ये सर-दर्द के वजह से हो रहा है. दवा के दूकान से क्रोसिन या डिस्प्रिन लेकर सो जाना चाहिए!
उफ़! ये पागल सोच!
Picture Source: (http://www.thehindu.com/todays-paper/tp-national/tp-tamilnadu/homeless-people-are-miserable-lot/article2666747.ece ; http://changeisinu.blogspot.in/ )
Discover more from piyush kaviraj
Subscribe to get the latest posts sent to your email.


November 6, 2014 at 4:52 PM
Reblogged this on talesbyCHANG and commented:
Paagal soch… nice blog!!
LikeLike