पहाड़ों के पत्ते भी , सूखने लगे हैं,
ऐ आसमा! ये बादल, क्यो रूठने लगे हैं?
ख्वाब होगा शायद ; चेहरा खिला हुआ था।
ओस की बूंदों मे , सूरज मिला हुआ था।
ये अन्धकार सा क्यो, छाने लगा है यारों ?
यू रोशनी के साये , क्यो छूटने लगे हैं?
ऐ आसमा, ये बादल, क्यो रूठने लगे हैं!
एक वक़्त था , उमंगें , हर ओर से जवाँ थीं ।
हर गीत मे नशा था, हर ज़िन्दगी यहाँ थीं ।
वो पल, कहीं तो ओझल, होने लगा है यारों ;
वो लम्हे नैनों को, क्यों मून्दने लगे हैं?
ऐ आसमा! ये बादल, क्यों रूठने लगे हैं!
-पीयूष कुमार.